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सं चे॒ध्यस्वा॑ग्ने॒ प्र च॑ बोधयैन॒मुच्च॑ तिष्ठ मह॒ते सौभ॑गाय। मा च॑ रिषदुपस॒त्ता ते॑ऽ अग्ने ब्र॒ह्माण॑स्ते य॒शसः॑ सन्तु॒ माऽन्ये ॥२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सम्। च॒। इ॒ध्यस्व॑। अ॒ग्ने॒। प्र। च॒। बो॒ध॒य॒। ए॒न॒म्। उत्। च॒। ति॒ष्ठ॒। म॒ह॒ते। सौभ॑गाय ॥ मा। च॒। रि॒ष॒त्। उ॒प॒स॒त्तेत्यु॑पऽस॒त्ता। ते॒। अ॒ग्ने॒। ब्र॒ह्माणः॑। ते॒। य॒शसः॑। स॒न्तु॒। मा। अ॒न्ये ॥२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:27» मन्त्र:2


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

विद्वानों को ही उत्तम अधिकार पर नियुक्त करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य तेजस्वी विद्वन् ! आप (सम्, इध्यस्व) अच्छे प्रकार प्रकाशित हूजिये (च) और (एनम्) इस जिज्ञासु जन को (प्रबोधय) अच्छा बोध कराइये (च) और (महते) बड़े (सौभगाय) सौभाग्य होने के लिए (उत्, तिष्ठ) उद्यत हूजिये तथा (उपसत्ता) समीप बैठनेवाले आप सौभाग्य को (मा, रिषत्) मत बिगाडि़ये। हे (अग्ने) तेजस्विजन् ! (ते) आप के (ब्रह्माणः) चारों वेद के जाननेवाले (अन्ये) भिन्न बुद्धिवाले (च) भी (मा, सन्तु) न हो जावें (च) और (ते) आप अपने (यशसः) यश कीर्ति की उन्नति को न बिगाड़िये ॥२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विद्वानों से भिन्न इतर जनों को उत्तम अधिकार में नहीं युक्त करते, सदा उन्नति के लिए प्रयत्न करते और अन्याय से किसी को नहीं मारते हैं, वे कीर्त्ति और ऐश्वर्य से युक्त हो जाते हैं ॥२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

विद्वांस एवोत्तमाधिकारे योजनीया इत्याह ॥

अन्वय:

(सम्) सम्यक् (च) (इध्यस्व) प्रदीप्तो भव (अग्ने) अग्निवद्वर्त्तमान (प्र) (च) (बोधय) (एनम्) जिज्ञासुम् (उत्) (च) (तिष्ठ) (महते) (सौभगाय) शोभनस्य भगस्यैश्वर्यस्य भावाय (मा) (च) (रिषत्) हिंस्यात् (उपसत्ता) य उपसीदति सः (ते) तव (अग्ने) (ब्रह्माणः) चतुर्वेदविदः (ते) (यशसः) कीर्त्तेः (सन्तु) (मा) निषेधे (अन्ये) ॥२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने त्वं समिध्यस्वैनं प्रबोधय च महते सौभगाय चोत्तिष्ठ। उपसत्ता भवान् सौभगं मा रिषत्। हे अग्ने ! ते ब्रह्माणोऽन्ये च मा सन्तु ते यशस उन्नतिं च मा रिषत् ॥२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये विद्वद्भ्यो भिन्नाञ्जनानुत्तमाऽधिकारे न योजयन्ति सदोन्नतये प्रयतन्ते, अन्यायेन कञ्चिन्न हिंसन्ति च, ते कीर्त्यैश्वर्ययुक्ता भवन्ति ॥२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे लोक विद्वानांना अधिकारी नेमतात, इतरांना नेमत नाहीत, नेहमी उन्नतीसाठी प्रयत्न करतात. अन्यायाने कुणाला मारत नाहीत ते कीर्तिमान व ऐश्वर्यमान होतात.